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“मेघा-रे”.. वेस्टंडीज से डॉ अजय शर्मा

विशेष

*”मेघा-रे”*

उफ वो ‘मई की तपन’, उफनती ‘धूप की चुभन’, और उस पर ‘बरसती लू” । राहत देने वाली ‘हवाओं” पर तो जैसे कर्फ्यू लगा हो । 24 घंटे मे मात्र तीन चार बार बमुश्किल, कोई ‘ठंडी हवा का झोका’।

रोड पर कम ही यातायात । सड़क पार किसी बिल्डिंग का निर्माण कार्य चल रहा । आग के थपेड़ों के बीच ‘तगाड़ियां’ ढोती महिलाएं। सिर और कानों को ‘गमछे’ से ढके, काम मे मशगूल कई मजदूर । उस बरसती आग मे, एक पतली सी ‘टीन की चद्दर के शेड’ के नीचे, अरबों-खरबों दुआओं की दौलत कमाती छोटी सी *प्याउ* पर वो ‘डोकरी’ । एक पथिक प्याउ पर प्यास बुझाने के बाद कुछ दूर जाकर धीमी आवाज मे बुदबुदाया…”तेरा ज़न्नत का टिकट तो पक्का है *अम्मा* । उपर वाले से मेरे लिये भी कोई छोटी-मोटी सिफारिश कर देना” । पास ही किसी मारवाड़ी की ‘धर्मशाला’ । यात्रियों के लिए निशुल्क विश्राम और ठंडे पानी की सुविधा ।

रोज़ 12 से 2 बजे की भरी दोपहर मे निकलता.. ‘आइस्क्रीम आइस्क्रीम’ चिल्लाता, वो ‘साइकिल वाला’ । थोड़ी देर मे बच्चों की टोली उसे घेर लेती । उसके पास ‘लाल’, ‘नीले’, ‘हरे’, ‘पीले’, तरह तरह के रंग के ‘बर्फ के गोले’

मगर ऐसा भी नहीं । उस गर्मी के फायदे भी कई थे । वो ‘ *Extended families’* के दिन थे । दादी, काकी, चाची, भाभी, सब मिलकर अथक मेहनत से स्वादिष्ट ‘चिप्स’, ‘बड़ी’, ‘कुडलई’, ‘पापड़, पापड़ी’ बनाते । ये सारे नमकीन फिर उस कड़क धूप मे सूखाये जाते । हम बच्चों की ड्यूटी होती, रोज़ सुबह उन्हे छत पर चादर बिछाकर, धूप मे रख कर आना और शाम ढले वापस लाना । नाम लेते ही मुंह मे पानी भर आने वाले वो ‘अचार’ भी गर्मियों मे ही डलते, फिर ‘ *बरनियों* ‘ मे रखे जाते । उस ग्रीष्म काल मे ही साल भर का ‘गेंहूं-गल्ला’ खरीदा जाता । पहले उसके क॔कड़- मिट्टी’ बीने जाते । फिर वो साफ पानी मे धुलता। और इस सब के बाद, छत पर कड़ी धूप मे सूखाकर, बड़े बड़े ड्रमों मे रखा जाता ।

शाम होते होते ‘चहल-पहल’ बढ़ जाती । गर्मी से राहत पाने बाहर निकले लोग । किसी ठेले पे ‘जलजीरा’, तो कहीं ताजा ‘गन्ने का रस’ । कही मटके वाली ‘कुल्फी’ । तो कहीं ठंडा ‘श्रीखंड’ । कहीं ‘ *ब्रजवासी* ‘ की, तो कहीं ‘ *घमंडी की लस्सी’* ।

तभी एक दिन रेडियो पर समाचार आया…’मानसून’ केरल आ गया है’, बस फिर क्या था…..शुरू हो गयी बारिश की तैयारियां !! … दुकानों पर टंग गये रंगबिरंगी ‘बरसाती और छाते’, और खोखों से बाहर निकले रबर के बरसाती ‘जूते’ । हर कोई मोची की दुकान की और रुख करे हुए । छोटे-बड़े और कई रंगो के ‘lace’ से सजी, मोची की वो ‘ *संदूकनुमा* ‘ छोटी सी दुकान और जिसके बगल मे ‘छातों का ढ़ेर’ । किसी के छाते मे छेद है, तो किसी की *कमानी* टूट गयी, किसी के छाते को खुलने मे दिक्कत तो किसी का बंद नहीं हो पाता । किसी के ‘रेनकोट’ मे टोका तो किसी के रेनकोट का बटन टूटा हुआ !!!

वो बारिश की पहली फुहार और उस तपती मिट्टी से उठती ‘सोंधी-सोंधी खुशबू’ । वो पहली बारिश मे दौड़कर बाहर जाकर भीगना । घर की छत पर चढ़कर , कपड़े ठूस-ठूस कर नालियों को ‘ *ब्लाक* ‘ करना और फिर इकट्ठे पानी से दोस्तों के संग ‘ *छपाछप* ‘ । भीगते हुए उस पानी मे साइकिल के केरियर पर दोस्त को बिठाकर कालोनी का एक चक्कर लगाना ।

सिर्फ उम्र ही बदली, शौक वही रहा । अब बचपन की उस साइकिल के जगह है स्कूटर । आज ‘office’ से छुट्टी मार ली है । आसमान मे घड़गड़ाहट के साथ बादल ऐसे उमड़ पड़े, मानो बरसों बाद मिली हो किसी की कैद से आजादी । हवाओं ने भी काटी कर्फ्यू की बेड़ियां और हुईं ‘मदमस्त’ ।

और एक बार फिर बरसात कालीन ‘ *शहर-भ्रमण* ‘ पर निकल पड़ने को तैयार हम अपने दोपहिया ‘ *Vespa* ‘ वाहन पर । अभी स्कूटर स्टार्ट कर ही रहे थे कि ‘ground floor’ वाले नवविवाहित दंपति के बीच कुछ प्यार भरी नोक-झोंक होती दिखाई दी । श्रीमती जी शायद बाहर जाकर बारिश का आनन्द लेना चाहतीं थीं, और पतिदेव बार-बार ‘office’ का हवाला देकर लाचारी दिखा रहे । अंत मे अनमने मन से पत्नि मान गयीं, मगर मानो शिकायत कर रही हों..:..”तेरी दो टकियां दी नौकरी मे, मेरे लाखों का सावन जाये..हाय हाय ये मजबूरी”

खैर उन्हे छोड़ हम आगे बढ़ गये ।

लगता है इस बार ट्रक-वाले भी लुत्फ लेने पूरी तैयारी से निकले …’आये दिन बहार के’, …. ’सावन भादो’….’सावन की घटा’….’ ‘रिमझिम के गीत सावन गाये’,… ‘आया सावन झूम के’ । ‘बरसात मे तुमसे मिले हम, हम से मिले तुम, बरसात मे ।… ‘ज़रा हटके, ज़रा बचके, मेरी जान’। ऐसे ना जाने कितने ‘ *slogans* ‘ से सुसज्जित ट्रक ।

रास्ते मे कई जगह पर हरे-भरे ‘भुट्टे के ठेले ‘। लोग नीबू-नमक लगे, गर्मा-गर्म स्वादिष्ट भुट्टों का आनन्द लेते हुए।

कुछ बच्चे जो बाहर नहीं निकल पा रहे, घर की खिड़कियों से ही हाथ निकाल कर झमाझम का आनन्द ले रहे ।

सड़क से थोड़ी ही दूर पर मिली झूमते -नाचते बालकों की एक टोली। कुछ अति-उत्साही बच्चों ने तो सतह पर बहते पानी मे ही डुबकी लगा मारी।

अभी थोड़ा और आगे बड़े तो देखा…अधेड़ उम्र के एक ‘ *दद्दा* ‘ सर पर एक बड़ा सा ‘नीला प्लास्टिक’ डाले, एक हाथ से उस प्लास्टिक को थामे और दूसरे हाथ मे डंडे से रोड पर अपनी गाय-बकरी हांकते घर पहुंचने की जल्दी मे । कभी बकरी काबू से बाहर, तो कभी प्लास्टिक!!!

तेज हवाओं ने एक संभ्रांत महिला की छत्री पलटी, जो हाथ से छूट हवा मे उड़ चली और कुलाट मारती सड़क पर काफी दूर निकल गयी । दो-चार लोगों ने दौड़कर छत्री को पकड़ा, फिर उन महिला ने पास की एक दुकान मे शरण ली ।

बस-स्टाप पर इंतजार करती, ‘Girls College’ की कुछ छात्राओं पर मोटरसाइकिल सवार तीन मनचलों ने जानबूझकर बगल से बाइक निकाल कर सड़क का गंदा पानी उड़ाया। कोसती हुई लड़कियां तो खैर बस मे चढ़ गयी पर वो तीनों मजनू आगे जाकर, रपटे पर फिसले और सीधे कीचड़ मे जा कर गिरे, एक के तो कपड़े फट गये बाकी दो अपने जख्म सहलाते रहे । एक भोपाली जो ये नज़ारा देख रहे थे, बोल उठे…”आईंन्दा जोखिम मत लेना मियां!!!, लड़कियों की बद्दुआऐं लग गयी तुम्हें” ।

मनीषा तालाब मे बारिश से बेखौफ मछुआरे, रोज़ की तरह मछली पकड़ने मे व्यस्त ।

वही तालाब के किनारे, अपनी बाइक को पास ही मे पार्क कर, उन ‘शेड वाली बेन्चों’ पर कई युगल जोड़े उस हसीन फिज़ा का आनन्द ले रहे,….”आइये बारिशों का मौसम है, इन दिनों चाहतों का मौसम है” !!

इस बीच बारिश कुछ और भी तेज हो गयी। मैं और मित्र चाय की दुकान पर रुकते हैं। चाय वाले से कई वर्षों की पहचान । उस वक्त कट चाय नहीं हुआ करती थी, नाही थे ‘disposable cups’ । थे तो वो slim से कांच के गिलास, जो किसी किस्म का भेद-भाव नहीं करते । ‘ *पानी* ‘, ‘ *चाय* ‘ ‘ *क्वार्टर* ‘ सब मे यही चलते थे । चाय भी केवल तीन टाइप की…’केतली वाली’ normal चाय, ‘Special चाय’ और ‘Golden चाय’ .

“Sir….दो golden” ?????…..चाय वाले ने confirm करना चाहा…..

इस बीच ठंड बढ़ गयी । मित्र ने ‘ *Gold flake* ‘ का packet निकाला। वो ‘lighter’ का ज़माना नहीं था । अखबार के टुकड़े की पोंगली बनाकर एक हिस्से को stove से जलाकर सिगरेट सुलगाई जाती थी ।

बरसती घटाओं और *Golden चाय* ने ज़ोरदार समां बांध दिया…

पार्रश्व मे कहीं गीत बज रहा था…..
“मेघा रे मेघा रे…
आज तू प्रेम का सन्देश बरसा रे”..

Dr Ajay Sharma
Trinidad and Tobago..
West Indies

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